धर्मवीर भारती गुनाहों का देवता

 गुनाहों के पीछे का देवता: चंदर की कथा, स्त्रियों की पीड़ा




"Would you rather love more and suffer more, or love less and suffer less? That is, I think, finally, the only real question."
-The Only Story

मार्शल मैकलुहान ने कहा था, “Medium is the message” और सच कहूं तो गुनाहों का देवता मेरे पास किताब से पहले सोशल मीडिया के ज़रिए ही पहुंचा। मैं यह समीक्षा हिंदी में इसलिए लिख रही हूँ ताकि भाषा को महत्व दिया जाए, और भावनाओं को उसी रूप में रखा जाए जैसे वे जन्म लेती हैं

इंस्टाग्राम पर रीलों में, किताब के आंसू भरे पन्नों की तस्वीरों में, और उस "अधूरे प्रेम" की पोस्टों में जो मेरे दिल को छू जाती थीं। ऐसा लगने लगा था कि यह सिर्फ एक उपन्यास नहीं, बल्कि हर युवा दिल की कहानी है  टूटे हुए प्रेम, न बोले गए संवाद और बलिदान के उस एहसास की कहानी।

लेकिन जैसे-जैसे मैंने पढ़ना शुरू किया, वैसे-वैसे परतें खुलने लगीं और मोहभंग भी। जब मैंने गुनाहों का देवता पढ़ना शुरू किया, तब मेरे मन में प्रेम की मासूम कल्पनाएं थीं। एक ऐसा प्रेम, जो त्याग, विश्वास और आत्मा से जुड़ा हो। लेकिन जैसे-जैसे चंदर और सुधा की कहानी आगे बढ़ी, मेरी आंखों के सामने सिर्फ प्रेम नहीं, सत्ता, पितृसत्ता, और एक पुरुष के ‘महान बनने’ की कीमत पर स्त्री की कराहती आत्मा खुलकर सामने आने लगी।

शुरुआत में चंदर मुझे संवेदनशील, भावुक और आदर्शवादी लगा। लेकिन जैसे-जैसे मैंने उसकी सोच को समझना शुरू किया, मैंने पाया कि वह सिर्फ सुधा से प्रेम नहीं करता था, बल्कि उस पर अपना नियंत्रण चाहता था भावनात्मक, नैतिक और सामाजिक नियंत्रण।

सुधा को वह सिर्फ प्रेमिका की तरह नहीं, एक आदर्श ‘भारतीय नारी’ की मूर्ति की तरह देखता है। सुधा हँसे, पर हद में, रोए, पर चुपचाप, प्रेम करे, पर सीमा में। वह सुधा को अपनी भावनाओं का केंद्र तो बनाता है, लेकिन जब समय आता है निर्णय लेने का, तब पीछे हट जाता है। क्यों? क्योंकि समाज, मर्यादा, परंपरा... और हाँ, उसके अपने ‘उच्च आदर्श’। सुधा चुप रही, लेकिन क्या चंदर वाकई इतना निर्दोष था?

सुधा की ज़िंदगी में चंदर की भूमिका सिर्फ प्रेमी की नहीं, एक फैसले लेने वाले पुरुष की थी। वह उसे न अपने होने देता है, न किसी और का। यह सत्ता है प्रेम नहीं।

एक और बात जो मुझे लगातार परेशान करती रही, वो थी चंदर की बौद्धिक स्थिति को लेकर उसका महिमामंडन। वह एक पीएचडी स्कॉलर है, बाद में प्रोफेसर बनता है, और समाज उसे एक गंभीर, ‘महान’ विचारक मानता है। लेकिन यह तथाकथित ‘बुद्धिजीवी’ पुरुष भावनाओं के सबसे मूल सवाल  प्रेम, स्वतंत्रता और स्वीकृति पर इतना अपरिपक्व क्यों है?

उसका सारा ज्ञान तब कहां चला जाता है जब सुधा की भावनाएं सामने आती हैं? चंदर अपने विचारों और दर्शन के नाम पर सुधा के प्रेम को त्यागता है, और जब वह किसी और से विवाह करने पर मजबूर होती है, तब चंदर को फिर वही सुधा याद आती है  उस रूप में नहीं जो सुधा सच में है, बल्कि उस रूप में जो उसने अपने मन में गढ़ रखा है।

और यही बात सबसे अधिक भयावह है चंदर कभी सुधा को एक व्यक्ति की तरह नहीं देखता, बल्कि एक ‘आदर्श की छाया’ के रूप में देखता है।

सुधा के पिता, जो स्वयं विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, आधुनिकता और पठन-पाठन से जुड़े हैं, लेकिन मानसिक रूप से गहरे पितृसत्तात्मक मूल्यों में जकड़े हुए हैं। यह विरोधाभास भारतीय समाज का यथार्थ है शिक्षा का स्तर ऊँचा, पर सोच वैसी ही संकीर्ण। वे सुधा के विवाह का निर्णय चंदर से किए गए गुप्त प्रेम के आधार पर नहीं, बल्कि सम्मान, मर्यादा, और सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर करते हैं। उनकी नज़रों में बेटी की खुशी नहीं, बल्कि समाज का मूल्यांकन महत्वपूर्ण है।

और ऐसे ही पिता के घर में पली-बढ़ी सुधा, जो ख़ुद भी पढ़ी-लिखी है, अपने मन की बात नहीं कह पाती। उसकी चुप्पी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है क्या पढ़ाई से स्त्रियाँ वाकई स्वतंत्र हो पाती हैं?

चंदर एक पीएचडी स्कॉलर है यह बात बार-बार दोहराई जाती है। वह ज्ञान की दुनिया का प्रतिनिधि है, उसे अपने विचारों पर गर्व है, और उसे समाज में एक विचारशील व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। लेकिन यही समाज यह सवाल नहीं पूछता क्या प्रेम में असफल होना भी एक बौद्धिक असफलता नहीं है?

चंदर अपने हर रिश्ते को सुधा की परछाईं मानकर चलते हैं  चाहे वह पम्मी हो, या बिनती। उसकी हर स्त्री से नज़दीकी को लेखक ने एक ‘आदर्श स्त्री की खोज’ की तरह पेश किया है। लेकिन क्या यह सुधा के स्थान को हल्का नहीं करता? स्त्रियाँ सिर्फ पुरुष के मन की रिक्तता को भरने वाली छायाएँ नहीं होतीं। वे स्वयं में पूर्ण व्यक्ति होती हैं लेकिन चंदर कभी इस पूर्णता को समझ नहीं पाया।

सुधा की मौत अचानक नहीं होती। यह एक प्रक्रिया है एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें हर दिन उसकी आत्मा मारी जाती है, उसकी इच्छाओं को दबाया जाता है, उसके प्रेम को नकारा जाता है। चंदर तो जीता है प्रोफेसर बनता है, और शायद किताब के अंत में आत्मग्लानि से भर भी जाता है लेकिन सुधा? उसे तो जीने तक का अधिकार नहीं मिलता।

वह गर्भवती होकर मरती है  लेकिन मरती सिर्फ शरीर से नहीं, अपनी उम्मीदों और प्रेम की मौत बहुत पहले हो चुकी थी।

लेखक ने चंदर की आत्मग्लानि को ऐसा चित्रित किया है जैसे यह उसके ‘महानता’ की निशानी हो  लेकिन सुधा की मौत को बस ‘नियति’ कहकर टाल दिया गया। नहीं, यह नियति नहीं थी। यह उस व्यवस्था का परिणाम था जो स्त्री के प्रेम को अपराध समझती है, उसकी इच्छा को बगावत मानती है, और पुरुष को हर अपराध से माफ कर देती है क्योंकि वह ‘पढ़ा-लिखा’, ‘आदर्शवादी’, ‘प्रोफेसर’ है।

मैं जब आख़िरी पन्ना पढ़ चुकी थी, मेरे भीतर सिर्फ दुःख नहीं, गुस्सा था। यह प्रेम कहानी नहीं है, यह एक चेतावनी है  कि पढ़ा-लिखा पुरुष भी स्त्री का भावनात्मक शोषण कर सकता है। यह दिखाती है कि एक प्रोफेसर, एक पीएचडी स्कॉलर भी सुधा की तरह एक स्त्री को अपने अहंकार, अपने दर्शन और समाज के ढांचे में कुचल सकता है  और फिर भी समाज उसे माफ कर देता है।

आज जब सोशल मीडिया पर इस उपन्यास की भावुक पंक्तियाँ घूमती हैं  “सुधा, मैं तुम्हें भूल नहीं पाया” तब मैं यह पूछना चाहती हूँ,
“क्या सुधा को भूलना चंदर का अधिकार था?”
“क्या सुधा को प्रेम करने, अपनी शर्तों पर जीने का कोई हक़ नहीं था?”

गुनाहों का देवता, मेरे लिए प्रेम नहीं, पितृसत्ता की किताब थी एक ऐसा पाठ जो हमें यह सिखाता है कि प्रेम में भी सत्ता होती है, और स्त्रियों को अपने प्रेम के लिए लड़ना भी पड़ता है।

धन्यवाद इस समीक्षा को पढ़ने के लिए 

Here is the audio book of Gunaho ka Devta.



I would like to acknowledge ChatGPT for assiting me in writing this review in Hindi.

No comments:

Post a Comment